An epic whose introduction is written by Jawahar Lal Nehru. Some part of its preface .. संस्कृति का इतिहास शौकिया शैली में ही लिखा जा सकता है। इतिहासकार, अक्सर एक या दो शाखाओं के प्रामाणिक विद्वान होते है। ऐसे अनेक विद्वानों की कृतियों में पैठकर घटनाओं और विचारों के बीच सम्बन्ध बिठाने का काम वही कर सकता है, जो विशेषज्ञ नहीं है, जो सिक्कों, ठीकरों और ईटों की गवाही के बिना नहीं बोलने की आदत के कारण मौन नहीं रहता। सांस्कृतिक इतिहास लिखने के, मेरे जानते दो ही मार्ग हैं। या तो उन्हीं बातों तक महदूद रहो। जो बीसों बार कही जा चुकी है। और, इस प्रकार, खुद भी बोर होओ और दूसरो को भी बोर करो; अथवा आगामी सत्यों का पूर्वाभास दो, उनकी खुल कर घोषणा करो और समाज में नीमहकीम कहलाओ, मूर्ख और अधपगले की उपाधि प्राप्त करो।
अनुसन्धानी विद्वान् सत्य से पकड़ता है, और समझता है, सत्य सचमुच, उसकी गिरफ्त में है। मगर इतिहास का सत्य क्या हैं? घटनाएँ मरने के साथ फोसिल बनने लगती हैं, पत्थर बनने लगती हैं। दन्तकथा और पुराण बनने लगती हैं। बीती घटनाओं पर इतिहास अपनी झिलमिली में डाल देता है, जिससे वे साफ-साफ दिखायी न पड़े जिससे बुद्धि की ऊँगली उन्हें छूने से दूर रहे। यह झिलमिल बुद्धि को कुण्ठित और कल्पना को तीव्र बनाती है, उत्सुकता में प्रेरणा भरती और स्वप्नों की गाँठ खोलती है। घटनाओं के स्थूल रूप को कोई भी देख सकता है, लेकिन उनका अर्थ वही पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव हो इसलिए इतिहासकार का सत्य नये अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन, कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी भी खण्डित नहीं होते। जिन सीधे-सादे पाठकों के मन पर पूर्वाग्राहों की छाया नहीं है, उन्हें कल्पक की कृति सचाई का उससे हाल बतायेगी, जितना इतिहास के प्रामाणिक ग्रन्थों से जाना जा सकता है। प्रामाणिक ग्रन्थों के तथ्य शायद ही कभी गलत पाये जाएँ, लेकिन, उनका विवरण हमेशा गलत और निर्जीव होता है।
An epic whose introduction is written by Jawahar Lal Nehru. Some part of its preface .. संस्कृति का इतिहास शौकिया शैली में ही लिखा जा सकता है। इतिहासकार, अक्सर एक या दो शाखाओं के प्रामाणिक विद्वान होते है। ऐसे अनेक विद्वानों की कृतियों में पैठकर घटनाओं और विचारों के बीच सम्बन्ध बिठाने का काम वही कर सकता है, जो विशेषज्ञ नहीं है, जो सिक्कों, ठीकरों और ईटों की गवाही के बिना नहीं बोलने की आदत के कारण मौन नहीं रहता। सांस्कृतिक इतिहास लिखने के, मेरे जानते दो ही मार्ग हैं। या तो उन्हीं बातों तक महदूद रहो। जो बीसों बार कही जा चुकी है। और, इस प्रकार, खुद भी बोर होओ और दूसरो को भी बोर करो; अथवा आगामी सत्यों का पूर्वाभास दो, उनकी खुल कर घोषणा करो और समाज में नीमहकीम कहलाओ, मूर्ख और अधपगले की उपाधि प्राप्त करो।
अनुसन्धानी विद्वान् सत्य से पकड़ता है, और समझता है, सत्य सचमुच, उसकी गिरफ्त में है। मगर इतिहास का सत्य क्या हैं? घटनाएँ मरने के साथ फोसिल बनने लगती हैं, पत्थर बनने लगती हैं। दन्तकथा और पुराण बनने लगती हैं। बीती घटनाओं पर इतिहास अपनी झिलमिली में डाल देता है, जिससे वे साफ-साफ दिखायी न पड़े जिससे बुद्धि की ऊँगली उन्हें छूने से दूर रहे। यह झिलमिल बुद्धि को कुण्ठित और कल्पना को तीव्र बनाती है, उत्सुकता में प्रेरणा भरती और स्वप्नों की गाँठ खोलती है। घटनाओं के स्थूल रूप को कोई भी देख सकता है, लेकिन उनका अर्थ वही पकड़ता है, जिसकी कल्पना सजीव हो इसलिए इतिहासकार का सत्य नये अनुसंधानों से खंडित हो जाता है, लेकिन, कल्पना से प्रस्तुत चित्र कभी भी खण्डित नहीं होते। जिन सीधे-सादे पाठकों के मन पर पूर्वाग्राहों की छाया नहीं है, उन्हें कल्पक की कृति सचाई का उससे हाल बतायेगी, जितना इतिहास के प्रामाणिक ग्रन्थों से जाना जा सकता है। प्रामाणिक ग्रन्थों के तथ्य शायद ही कभी गलत पाये जाएँ, लेकिन, उनका विवरण हमेशा गलत और निर्जीव होता है।